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सामाजिक न्याय के पुरोधा, पिछड़ों को मुख्यधारा से जोड़ने वाले पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह थें दलित पिछडो़ के असली हिमायती

सामाजिक न्याय के पुरोधा, पिछड़ों को मुख्यधारा से जोड़ने वाले पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह थें दलित पिछडो़ के असली हिमायती

महामानव वीपी सिंह ने भारतीय लोकतंत्र की रक्षा की ये कहनें में कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं उनके फ़ैसले का असर सदियों तक रहेगा और लोग मानेगें भी।सरकारी नौकरियों में ओबीसी की हिस्सेदारी जब न के बराबर थी, ओबीसी का लोकतंत्र से मोहभंग हो रहा था़, देश में अराजकता का माहौल बन गया था ओबीसी सत्ता से विद्रोह कर सकता था, तब पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू कर केंद्र सरकार की नौकरियों में 52% ओबीसी को 27% आरक्षण देकर लोकतंत्र में सभी को एक समान नजरों से देखने वाली लकीर खीच दी।मंडल मसीहा वीपी सिंह जी शिव की तरह खुद विष पीकर दलित, पिछड़ों के उस समय हिमायती बने थें यदि आज के वर्तमान दौर में बहुजनों में जरा सी भी सामाजिक चेतना हो, मंडल लहर का थोड़ा सा भी नमक रगों में दौड़ता हो, तो वी पी सिंह की जयंती पर उन्हें याद रखना चाहिए।25 जून 1931को जन्में वी पी सिंह के पिता दहिया रियासत के जमींदार बहादुर राय गोपाल सिंह थे. 1936 में मांडा रियासत के राजा भगवती प्रसाद सिंह ने उन्हें गोद ले लिया. गोद लेने के 5 साल बाद 1941 में राजा भगवती प्रसाद सिंह की मृत्यु हो गयी. तब विश्वनाथ सिंह की उम्र दस साल थी. उन्हें मांडा रियासत का राजा बहादुर घोषित कर दिया गया. वी पी सिंह की प्राम्भिक शिक्षा देहरादून में हुयी. स्नातक तक की पढाई इलाहाबाद में ही पूरी करने के बाद पुणे यूनिवर्सिटी से उन्होंने कानून की शिक्षा ग्रहण की. छात्र रहने के दौरान ही वे राजनीति की तरफ आकर्षित हुए. कांग्रेस से जुड़ने के बाद 1969-1971 में वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुँचे। उन्होंने 1980 से 28 जून 1982 तक उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का कार्यभार भी सम्भाला। उनका मुख्यमंत्री कार्यकाल 9 जून 1980 से 28 जून 1982 तक ही रहा। देश के सबसे बड़े राज्य उतर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. उतर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद डाकुओं के आतंक से त्रस्त जनता को निजात दिलाने के लिए पुलिस को सख्त कार्रवाई का आदेश दिया. पुलिस ने 40 से अधिक डाकुओं को एनकाउंटर में मार गिराया. फिर भी डाकुओं के हमले बंद नही हो रहे थे. उल्टे डाकुओं ने एक गांव में हमला कर 16 लोगों की हत्या कर दी. इंडिया टुडे की तहकीकात में पता चला की पुलिस ने एनकाउंटर में जिन डाकुओं को मारने का दावा किया था. वे सारे एनकाउंटर फर्जी थे. वी पी सिंह ने नैतिकता का ख्याल रखते हुए इस्तीफा दे दिया. हालांकि वे हार नही माने. सर्वोदयी नेता के रूप में इस्तीफा देने के एक साल बाद कई डाकुओं को समाज की मुख्यधारा में शामिल करवाया.वीपी सिंह ईमानदार इतने थे कि उतर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के दौरान वे बस की यात्रा करके निजी मुक़दमे के कार्य से देहरादून जाते थे. रक्षा मंत्री बनने के बाद बस से ही संसद पहुचें. उन्होंने अपने घर के निजी स्टाफ के चयन में भी इस बात का ध्यान रखा की वो सरकारी फाईल नहीं पढ़ सके. वी पी सिंह कभी भी किसी कारपोरेट घरानों के यहाँ कभी भी डिनर पर नही गये. ऐसे बिरले नेता कहाँ मिलेंगे.उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के इसके वह इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में 29 जनवरी 1983 को केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री बने। विश्वनाथ प्रताप सिंह जुलाई 1983 में राज्य सभा के भी लिए चुने गए। फिर वे राजीव गाँधी की सरकार बनने पर केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुए. सरकार में उन्हें वित मंत्री का पद मिला. वित् मंत्री के रूप में उन्होंने अम्बानी, अमिताभ बच्चन जैसे रसूख परिवारों पर भी टैक्स चोरी के आरोप में कार्रवाई की. इस दौरान कस्टम और एक्साईज से प्राप्त टैक्स में 7 से 12% तक की वृद्धि हुयी. वीपी सिंह की ईमानदारी व्यापारिक घरानों, और राजीव गाँधी के दोस्तों को अच्छी नही लगी. लिहाजा हर तरफ से पड़ रहे दबाव के बाद राजीव गाँधी ने उनका मंत्रालय बदल कर उन्हें रक्षा मंत्री बना दिया. लेकिन वी पी सिंह तो अपनी धून के पक्के थे. अपनी नीतियों के कारण उनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी. वही कांग्रेस के अंदर गाँधी परिवार के किचेन कैबिनेट के सदस्य, के के तिवारी, हंस राज भारद्वाज, नारायण दत तिवारी, अरुण नेहरु, दिनेश सिंह जैसे अन्य कई नेता निजी स्वार्थ वश नाराज चल रहे थे.वित मंत्री रहने के दौरान ही बड़े कारपोरेट घरानों पर कार्रवाई के लिए परवर्तन निदेशायालय के निदेशक भूरे लाल ने आर्थिक मामलों के जानकार एस गुरुमूर्ति के सलाह पर अमेरिकी कंपनी फेयरफैक्स को कारपोरेट कंपनियों के टैक्स चोरी की जासूसी करने का कॉन्ट्रैक्ट दिया था. 31 मार्च 1987 को संसद में सांसद दिनेश सिंह ने आवाज उठाया की आखिर किसी भी विदेशी कंपनी को क्यों देश के मामले में हस्तक्षेप करने का कॉन्ट्रैक्ट दिया गया. आखिर वित् मंत्री ने प्रधानमंत्री को क्यों अंधकार में रखा. जाहिर है की निशाना वी पी सिंह की ओर था. पहले से ही नाराज चल रहे अप्रैल 1987 में राजीव गाँधी ने इस मामले की न्यायिक जांच के आदेश दे दिए, जिसमे राजा मांडा बाद में साफ़ साफ़ निकले.

लेकिन राजनीति के माहिर खिलाडी राजा मांडा भी क्यों चुप रहते. नतीजतन जर्मनी से पनडुब्बी खरीद के मामले में प्रधानमंत्री की भूमिका को भांपते हुए उन्होंने जांच का आदेश दे दिया. यह वंचितों के मसीहा का कांग्रेस से बगावत का उद्घोष था. बोफोर्स और पनडुब्बी रक्षा सौदों में उन्हें घोटाले के तार पीएमओ तक जाते हुए मिले. उन्होंने सरकार के खिलाफ हल्ला बोल दिया. सरकार से इस्तीफा दे दिया।लेकिन यह लड़ाई सिर्फ फाइलों में ही नहीं सड़क पर भी लड़ा जाना था। रक्षा सौदों में घोटाले के खिलाफ वी पी सिंह देश भर में दौरे कर रहे थे. पहली बार देश की जनता को गाँधी परिवार से बाहर के किसी नेता में प्रधानमंत्री पद का चेहरा नजर आ रहा था. कांग्रेस में राजीव गाँधी से नाराज नेताओं के साथ वी पी सिंह ने हरिद्वार में बैठक की. नतीजतन जुलाई 1987 में राजीव गाँधी ने वी पी सिंह को कांग्रेस से बाहर कर दिया।कांग्रेस से अलगाव के बाद उन्होंने जनमोर्चा का गठन किया. जनमोर्चा के नेताओं के साथ वी पी सिंह दिल्ली में बैठक कर रहे थे. बहस बीच में ही अटक गयी कि वी पी सिंह ने कहा कि वह नही चाहते है कि लोगों में ऐसी धारणा बने की वी पी सिंह पद और पावर के लिए लड़ता है. पार्टी के नेताओं का कहना था की महात्मा गाँधी के आन्दोलन के बाद सता सँभालने के लिए जवाहर लाल नेहरु थे. हमारे आन्दोलन के बाद सता कौन संभालेगा, लोगों की जिज्ञासा को शांत करना पड़ेगा. यह आंदोलन के लिए जरुरी है. वी पी सिंह पावर के विकेंद्रीकरण के समर्थक थे. वे सता पर एकल नियंत्रण के विरुद्ध थे।हालांकि जनता दल के नेताओं के जिद के आगे वी पी सिंह की एक नही चली, उन्हें जनमोर्चा के चुनावी अभियान का घोषित नेता बना दिया गया. देश भर में भ्रष्ट्राचार विरोधी विरोधी रैली आयोजित हुई. उतर भारत का होने के बावजूद दक्षिण भारत में भी बड़ी संख्या में लोग उन्हें सुनने के लिए आये।इसी माहौल में लोक सभा चुनाव 1989 में कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ। सबसे बड़ा दल होने के बावजूद कांग्रेस को मात्र 197 सीटें मिली, लेकिन बहुमत के लिए समर्थन नही होने के कारण राजीव गाँधी ने सरकार बनाने से इनकार कर दिया. वीपी सिंह को समर्थन देने वाले जनता दल को 143 सीटें मिली थी। भारतीय जनता पार्टी की 85 सीटों और वाम दलों के 33 सांसदों के समर्थन से वी पी सिंह देश के प्रधानमंत्री चुने गये. प्रधानमंत्री बनने के बाद वंचितों के मसीहा को वंचित समाज के उत्थान करने का मौका मिला, जिसे वे गवाना नही चाहते थे. उनके समर्थक शरद यादव, रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने ऐसे हालात बना दिया कि उन्होंने मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर को लागू कर पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया।1990 के मंडल आंदोलन में देश की राजनीतिक सभाओं में नारा लगता था, राजा नही फ़क़ीर है, देश की तक़दीर है . इस नारे के पीछे वी पी सिंह का त्याग और फक्कड़ स्वभाव था. अभिजात्य वर्ग के लोग भ्रम फैलाते रहे है की वी पी सिंह ने मंडल कमीशन को राजनीतिक कारणों से लागू किया था.शायद वे भ्रम फ़ैलाने में कुछ हद तक कामयाब भी रहे है. लेकिन उनकी फकीरी और गरीबों, वंचितों के लिए त्याग का आलम यह था की उन्होंने भूदान आन्दोलन के दौरान दो सौ बीघा जमीने दान कर दिया. उनके इस फैसले के बाद उनके परिवार के लोग भी उनसे रिश्ते ख़तम कर लिये । प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने डॉ. भीम राव आंबेडकर की तस्वीर संसद में लगवाने के बाद भारत रत्न की उपाधि देकर राष्ट्रीय कर्तव्य निभाया. वे जानते थे की भारत का अभिजात्य वर्ग उन्हें सत्ता से उखाड़ फेकेगा, इसके बावजूद उन्होंने मंडल कमीशन को लागू कर हजारों वर्षों से चले आ रहे अन्याय को रोकने के लिए कदम उठाये. भला इतनी हिम्मत डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर के बाद किस नेता में थी। शायद आज के नेताओं को ये जागरूकता समझ में आ जाती तो सत्ता की मलाई काट रहें पिछडे़ ,दलित नेताओं की आंखें खुल जाती लेकिन खुले भला कैसे जब ओ सिर्फ़ सत्ता और कुर्सी का स्वाद मलाई खाने के लिए चुना हों। आज के दौर में नये नेताओं की तो ऐसी हालात हैं कि ओ पढ़ना तनिक भी नहीं चाहतें मगर राजनैतिक मंचों से माईक पर बोलने को मिल जाए तो सुना सुनाया आधा अधूरा ज्ञान ही दे पातें हैं उससे ज्यादा कुछ नहीं। ई आरक्षण कहां से आई .. वीपी सिंह …..। जैसे अभ्रद कमेंट भी अभिजात तबके के द्वारा किया जा रहां था उसके बावजूद भी मंडल मसीहा ने अपनी मसीहाई को दिखाया हीं नहीं पूरा भी किया। आज के समय में हाशिए पर रहने वाले समाज की नैतिक जिम्मेदारी हैं कि ओ गांव गिराव खेत खलिहान के रास्ते घर घर तक वीपी सिंह के विचारों को फैलायें और जागरूकता मंच लगाकर शोषित वंचित पीडि़त तबके को वीपी सिंह द्वारा किए गयें कार्यों पर विमर्श करें तभी कुछ वर्तमान दौर की धर्म राजनीति में मंडल की हवा चल पायेगी यदि ऐसा नहीं होता हैं सिर्फ़ गाल बजाने वाली बात होगा और कुछ नहीं।