Sunday , December 24 2023

सर्वसेवा संघ के पुस्तकालय को किया गया जमीदोज ,गांधी और नेहरू की किताबों को फेका गया सड़कों

विनोद यादव

फर्क इंडिया।। नेहरू ,जयप्रकाश नारायण,लोहिया जैसे तमाम समाजिक न्याय पसंद लोगों की किताबों को आप रद्दी के भाव बेच दे ,सड़कों पर फेक दें मगर इस देश की आवाम आज भी अहिंसा के पुजारी गांधी वादी हैं नेहरु और अंबेडकर वादी हैं , ये और बात होगी की मौजूदा सत्ता को ये लोग हजम नहीं होते होगे लेकिन हमने उन्हें अपने छात्र जीवन से इलाहाबाद में रहकर पढ़ा, जाना ,समझा और सही गलत में अंतर देखा और महसूस किया । खैर गांधी संस्थान बनारस के पुस्तकालय की किताबें जो बरसात में लावारिस फेंक दी गई।उन्हें फेकने कोई बाहर से कोई आक्रमणकारी नहीें आया था।ये वहीं लोग हैं जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की जीहुजूरी की हैं ।दरअसल धरती की महत्ता और कीमत जब आंकी गयी तो लाइब्रेरी,किताबें, स्कूल,
विद्यार्थी, शिक्षक,गाछ- वृक्ष बुद्धिजीवी ,गांधी-विनोबा-जय प्रकाश जी और उनके अनुयायी-सब मूल्यहीन से लगे ‘उनको’ ,व्यापार में सब जायज है।किताबें ऐसे नंगी कर फेकी गयी जैसे मणिपुर में बेटी को निर्वस्त्र करके घुमाया गया था । फेकी गयीं किताबों के बीच गांधी जी की इस मूर्ति को देख कर लग रहा हैं गांधी जी देख रहें हो कि मेरे ही सामने किताबें फेकी गयी जैसे अंग्रेजों ने मुझे चलती ट्रेन की बोगी से धक्का देकर गिरा दिया हो।खैर पुलिस द्वारा सारी किताबें बाहर खुले में फैंकी जा चुकीं हैं। सरकार एक मैगा व्यावसायिक प्रोजेक्ट बना रही है जिसे निजी हाथों को दिया जायेगा और जिसमें एक भी बिंदु गांधी विचार का नहीं है। सर्व सेवा संघ के साथ इसी परिसर से सटे अन्य स्थान भी हैं जिनसे डा.राजेंद्र प्रसाद , जे कृष्णमूर्ति , आचार्य विनोबा , लाल बहादुर शास्त्री , जयप्रकाश नारायण निकट और गहरे से जुड़े रहे हैं। यह बारह एकड़ का स्थान गंगा किनारे राजघाट पर स्थित है जहॉं अब प्रधानमंत्री के नाम से भी एक नमो घाट बन चुका है।साठ दिन के मात्र सांकेतिक विरोध के बाद पुलिस ने इसे पहले दबंगई से ख़ाली कराया और परिसर की सभी इमारतें सील या ज़मींदोज़ कर दी जायेंगीं। किताबें और जेपी की तस्वीर बाहर फैंकी जा चुकी है।गुजरात के साबरमती आश्रम और गुजरात विद्यापीठ से ये क़ब्ज़ा करने की जो प्रक्रिया शुरु हुई और गांधीवादियों ने जिस तरह का शर्मनाक आत्म समर्पण किया था उसके बाद दूसरा निशाना वाराणसी के ये केंद्र बने और यहॉं भी यह साबित हुआ कि देश भर के गांधीवादी उनकी संस्थायें मूक समर्थन देने से भी दूर रहीं। इनमें आपस में भी भयंकर कलह फूट है। अपवाद स्वरूप दो चार लोग बाहर से आये , उप्र से भी कोई ख़ास समर्थन नहीं दिखा बल्कि जो कुछ समर्थन मिला भी वह मौखिक , सोशल मीडिया और घर पर लेटा हुआ समर्थन था।मैदाने जंग में यानी कार्यवाही स्थल से गांधीवादियों की ऐसी कायरतापूर्ण दूरी बनाना हमें समझ में आता है कि आज़ादी के बाद से ही सरकारी संरक्षण पोषण की संस्कृति में टिके रह कर सत्याग्रह व प्रतिरोध का वैचारिक विरोध व उपहास उड़ाने का काम ही तो इन कथित गांधीवादियों ने किया था। आज वही पाप इनके लिये आत्मघाती बन रहा है।आज़ादी के बाद गांधी जी द्वारा सीधे या प्रेरित कर सैंकड़ों संस्थाओं का निर्माण हुआ और शहरों के विस्तारीकरण के बाद तमाम स्थानों पर ये ज़मीनें शहर के मध्य या किनारे पर आ चुकीं थीं और उनकी क़ीमत भी बहुत ज़्यादा हो चुकी है।संस्थाओं में फूट और निष्क्रियता के कारण सामान्य जनता से कटाव दुराव इस हद तक बढ़ा कि आज 42 लाख की आबादी के शहर में सर्वेसर्वा संघ के समर्थन में 42 लोग भी सक्रिय नहीं थे। 60 दिनों का धरना भी परिसर स्थित आंगनवाड़ी की महिलाओं के कारण चल सका था।अंत में यही कि प्रतिरोध की भाषा “ अंधेरे में तीन प्रकाश, गांधी विनोबा जयप्रकाश “ नहीं है बल्कि “ अंधेरे में तीन प्रकाश , गांधी लोहिया जयप्रकाश “ है भारत में प्रतिरोध की भाषा आचरण कर्म और मुद्दे विनोबा ने नहीं लोहिया ने उठाये थे। जब तक इस पर दिमाग़ी सफ़ाई नहीं होगी आपको रास्ता ही नहीं दिखेगा ! आखिर सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि आप इस देश के युवाओं पर कौन सी विचारधारा थोपना चाहतें हो ओ विचारधारा जो सिर्फ एक दिखावा है। जो अपने मुख्यालय पर आजादी के 52 वर्षों तक तिरंगा नहीं लगा सकी या ओ विचारधारा जो गांधी को गोली मारती हैं ।शायद ये सोच हैं तो अपका मकसद कभी पूरा नहीं होगा यह देश संविधान में भरोसा रखता हैं और हर युवा नफरत के जाल में नहीं फसा हैं । आधुनिकता के इस दौर में कबीर से लेकर पेरियार तक और फूले से लेकर अंबेडकर तक सभी को बाखूबी पढा़ हैं लेकिन एक बात हैं तथाकथित राष्ट्रवादी ताकतें अपनी अनुपलब्धि को छिपाने के लिए गांधी और नेहरू के लोककल्याणकारी कार्यों को विपरीत दिखाने में अहर्निश तत्पर रहती हैं किन्तु सूरज की रोशनी को चादर से ढका नहीं जा सकता है,इस बात से वे अनभिज्ञ हैं ।गांधी और नेहरू इनके निशाने पर हमेशा से रहे हैं, क्योंकि वे समन्वयवादी समाज के आकांक्षी हैं। बस फर्क इतना है कि जो खेल नेहरू के साथ खुले तौर पर खेला जाता है, वही खेल महात्मा गांधी के साथ लुक-छिपकर। अर्थात जहां राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बात-बात पर नेहरू को खरी-खोटी सुनाई जाती है, वही गांधी को मौका देखकर।

गांधी अभी भी दो अक्टूबर जैसे अवसरों पर याद कर लिए जाते हैं।कहने का मतलब गांधी पर हमले यदा-कदा होते हैं, पर नेहरू पर खुलकर और प्रायः रोज ही। वजह यह कि गांधी पर हमले का कोई वैचारिक आधार नहीं मिल पाता है इन लोगों को। आखिर दलीय सीमाओं से परे उनके व्यक्तित्व पर आक्रमण हो भी तो कैसे हो।उनकी हत्या के बाद उसके दुष्परिणामों ने इनको अत्यधिक सतर्क कर दिया है। विरोधियों की दिक्कत यह भी है कि वे उन पर सत्तावादी होने का आरोप भी नहीं मढ़ सकते। इसलिए ले देकर वह गांधी पर मुस्लिम तुष्टिकरण का मिथ्या आरोप लगाते हैं। साथ ही ब्रह्मचर्य को लेकर भी गांधी का चरित्र हनन करते हैं। चर्चा चलने पर गांधी को अन्य राष्ट्रवादियों को फंसाने, उभरने न देने, उनके योगदान को खारिज करने वाले षड्यंत्रकारी के रूप में प्रस्तुत करते हैं।बावजूद इन सबके इन कथित हिंदूवादी नव राष्ट्रवादियों की विवशता यह है कि विदेशों में उन्हें न चाहते हुए भी अपने इस चिर शत्रु के सामने सर झुकाना पड़ता है। लेकिन यह विवशता अपनी धरती पर उस मात्रा में नहीं है, जितनी विदेशी धरती पर है। यहां वे थोड़ी छूट ले ही लेते हैं। अब उनके पास अंधसमर्थकों की लंबी-चौड़ी फौज भी है, जो उनके द्वारा प्रचारित अफवाहों को वेदवाक्य मान श्रद्धा से ग्रहण करती है। सो यहाँ उन्होंने अपने कारिंदों को गांधी के चरित्र हनन के लिए लगा रखा है। मामला ज्यादा तूल पकड़ने पर सहज भाव से अपने प्रिय पात्र को दिल से न माफ़ करने की घोषणा भी कर दी जाती है।बेचारे नेहरू को तो इतनी भी रियायत हासिल नहीं है। पूरे स्वतंत्रता के अमृतमहोत्सव से नेहरू को बाहर रखा गया। उनके बाल दिवस की स्मृति को धूमिल करने की नीयत से गुरु गोंविद सिंह के वीर पुत्रों की शहादत की स्मृति में “वीर बाल दिवस” के नाम से नए दिवस की घोषणा की गई। बेशक इनकी शहादत अविस्मरणीय है और भारत की गौरवपूर्ण बलिदानी परंपरा का स्वर्णिम अध्याय भी। उनकी याद में दिवस रखना स्वागतयोग्य है, पर सच बताएं तो द्वेष भावना से रखे गए इस नाम में उन वीर बालकों के त्याग-बलिदान का वह सर्वोच्च भाव ध्वनित ही नहीं हो पा रहा है, जिसके वे स्वाभाविक अधिकारी हैं। इस नाम में उनकी शहादत की स्मृति तो कौंधती ही नहीं। बालकों के सर्वोच्च बलिदान की स्मृति में सार्थक नामों की तलाश की जानी चाहिए थी। ख़ैर, नेहरू चूंकि सत्ता के केंद्र में रहे हैं और स्वतंत्रता बाद कांग्रेस की वैचारिकी के मुख्य स्तम्भ भी, इसलिए स्वाभाविक है कि वे इनके मुख्य निशाने पर रहेंगे ही। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना कि कथित हिंदुत्ववादी संगठन गांधी के प्रति उदारमना हैं तो यह भारी भूल है। वे गांधी को विवशता में पूजते हैं। भारी मन से गांधी की मूर्ति के सामने बैठकर चरखा चलाने का अभिनय करते हैं। जब वे भरी संसद में यह कहते हैं कि अगर गांधी पर कोई कायदे की मूवी बन जाती तो गांधी भी विश्व के लिए अपरिचित न होते। मने वे प्रकारांतर से यह बताना चाहते हैं कि गांधी की विश्व में उतनी प्रतिष्ठा नहीं है, जितनी कि लोग समझते हैं।इसमें गांधी की वैश्विक प्रतिष्ठा को जानबूझकर अस्वीकार करने का भाव है। इस विचार सम्प्रदाय के लोग उनको राष्ट्रपिता कहने पर भी आपत्ति करते हैं। वे गांधी-नेहरू के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर स्थापित सुभाष बाबू की तो खूब प्रशंसा करते हैं, लेकिन सुभाष बाबू के द्वारा ही दिए गए नाम राष्ट्रपिता से उन्हें चिढ़ है। हालांकि प्रतिद्वंद्विता की स्थापना भी शरारतपूर्ण है। सही अर्थों में यह प्रतिद्वन्द्विता नहीं बल्कि वैचारिक स्वतंत्रता थी। वैचारिक विरोध को दुश्मनी की शक्ल देकर आसानी से अपने एजेंडे को सेट किया जा सकता है। इसीलिए भिन्न वैचारिकी के प्रतीक के रूप में इन्हें सुभाष और भगतसिंह प्रिय हैं अन्यथा वैचारिकी के स्तर पर तो ये सुभाष व भगतसिंह के भी धुर विरोधी हैं।इनकी दिली इच्छा तो यह है कि ये किसी तरह गांधी को स्वतंत्रता आंदोलन का खलनायक सिद्ध कर सकें। यह अपनी उस नकारात्मक भूमिका से उपजे हीनभाव को छुपाने का भी उपक्रम है, जो खुद उनके संगठन द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन में निभाई गयी थी।इन्हीं प्रवृत्तियों के चलते वे समय-समय पर ऐसा कुछ करते रहते हैं, जो गांधी-नेहरू की विरासत को चोट पहुंचा सके। अभी हाल ही में सर्व सेवा संघ को बुलडोज करना इसी प्रतिगामी सोच का परिणाम है। बताया गया कि यह इमारत रेलवे की जमीन का अतिक्रमण करके बनाई गई थी। इस इमारत से विनोबा भावे, जेपी और राजेंद्र प्रसाद की सदभावनाएँ भी जुड़ी थीं। क्या रेलवे के लिए यह गौरव की बात नहीं थी कि वह एक राष्ट्रीय प्रतीक से जुड़ा है। अफ्रीका के जिस स्टेशन पर गोरों ने गांधी को ट्रेन से बाहर फेंका था, वह स्टेशन आज गांधी की स्मृति को गर्व से संजोए है, पर गांधी के देश में गांधी से जुड़े प्रतिष्ठान को अतिक्रमण के रूप में देखा जाता है। और हम लोगों की नैतिक चेतना इतनी मर चुकी है कि हमें यह घटना झकझोरती ही नहीं। विडंबना है कि राम की भावभूमि पर रामराज्य की संकल्पना को जीने वाले एक महात्मा से जुड़े हर व्यक्ति, हर संस्थान को बख्शा नहीं जाता।सर्वसेवा संघ, बनारस को बुल्डोज करने के लिए उसे जबरन खाली करवा लिया गया। गांधी जी की मूर्ति, उनसे जुड़ी चीजें और गांधी दर्शन से सम्बंधित तमाम किताबें खुले आसमान के नीचे भारत की वर्तमान संतति के नए व्यवहार की साक्षी बन रही हैं। यहीं वजह हैं कि आज वर्तमान दौर की राजनीति में गांधी और नेहरू दोनों सत्ता के निशाने पर रहतें हैं ।