अल्जाइमर रोग के रहस्य को सुलझाने की दिशा में विज्ञान ने एक ऐतिहासिक छलांग लगाई है। दशकों से जो काम वैज्ञानिकों के लिए एक असंभव सी चुनौती बना हुआ था- मस्तिष्क में छिपे ‘विषाक्त प्रोटीन’ के गुच्छों को सटीक रूप से मापना, अब वह संभव हो गया है।
इजरायल और नीदरलैंड के शोधकर्ताओं ने मिलकर एक ऐसी नई तकनीक विकसित की है, जिसने चिकित्सा जगत में नई उम्मीद जगा दी है। यह तकनीक न केवल बीमारी की जड़ को पकड़ने में मदद करेगी, बल्कि डिमेंशिया के निदान का एक बिल्कुल नया रास्ता भी खोल सकती है।
क्या है यह नई तकनीक?
इस अभिनव तकनीक को ‘फाइब्रिल्स पेंट’ और ‘फाइब्रिल्स रूलर’ के संयोजन के रूप में जाना जाता है।
यह विधि मुख्य रूप से ‘टाउ एमाइलाइड फाइब्रिल्स’ की लंबाई को सीधे मापने की क्षमता रखती है। खास बात यह है कि यह तकनीक तब भी काम करती है जब ये फाइब्रिल्स तरल पदार्थ में तैर रहे होते हैं और उनकी मात्रा बेहद कम होती है। चूँकि इन फाइब्रिल्स का बढ़ना सीधे तौर पर अल्जाइमर और डिमेंशिया से जुड़ा है, इसलिए इनका सटीक माप इस बीमारी को समझने में एक महत्वपूर्ण प्रगति है।
क्यों खतरनाक हो जाता है ‘टाउ प्रोटीन’?
इस शोध के अनुसार, अल्जाइमर और अन्य न्यूरोडीजेनेरेटिव विकारों की मुख्य पहचान मस्तिष्क में ‘टाउ प्रोटीन’ का असामान्य रूप से जमा होना है।
सामान्य स्थिति में: टाउ प्रोटीन मस्तिष्क के लिए आवश्यक होते हैं। ये तंत्रिका कोशिकाओं की आंतरिक संरचना और उनके कार्य को बनाए रखने में मदद करते हैं।
बीमारी की स्थिति में: जब टाउ का आकार बदलता है, तो यह असामान्य रूप से गुच्छे बनाना शुरू कर देता है। समय के साथ, ये प्रोटीन गलत तरीके से मुड़ जाते हैं और लंबे ‘एमाइलाइड फाइब्रिल्स’ में बदल जाते हैं।
हिब्रू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर असाफ फ्राइडलर का कहना है कि टाउ फाइब्रिल्स की लंबाई केवल एक विवरण नहीं है, बल्कि यह बीमारी की प्रक्रिया को समझने का एक प्रमुख पैमाना है।
एक ‘स्मार्ट चाबी’ की तरह करती है काम
इस नई तकनीक का सबसे अहम हिस्सा ‘फाइब्रिलपेंट-1′ है, जो एक छोटा ’22-एमिनो एसिड पेप्टाइड’ है। इसे विशेष रूप से एक फ्लोरोसेंट प्रोब (चमकने वाले संकेतक) के रूप में तैयार किया गया है।
यूट्रेक्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्टेफान जीडी रुडिगर ने इसे समझाते हुए कहा कि वे एक ऐसी तकनीक चाहते थे जो एक “स्मार्ट कुंजी” की तरह काम करे।
यह केवल हानिकारक एमाइलाइड फाइब्रिल्स को खोजती है और उनसे जुड़ती है।
यह अकेले और सामान्य टाउ अणुओं (जो हानिकारक नहीं हैं) को पूरी तरह अनदेखा कर देती है।
इससे शोधकर्ताओं को जटिल नमूनों में भी हानिकारक और सुरक्षित प्रोटीन के बीच अंतर करने में आसानी होती है।
पुरानी तकनीकों से यह कैसे बेहतर है?
अब तक फाइब्रिल्स के आकार को सीधे मापना अत्यंत कठिन था। पुरानी तकनीकें, जैसे कि माइक्रोस्कोपी, के साथ कई समस्याएं थीं:
उन्हें नमूनों की बड़ी मात्रा की आवश्यकता होती थी।
वे फाइब्रिल्स को उनके प्राकृतिक वातावरण से हटा देती थीं।
वे केवल आकार का अप्रत्यक्ष अनुमान ही लगा पाती थीं।
इन कमियों की वजह से यह जानना मुश्किल था कि ये फाइब्रिल्स कैसे बढ़ते हैं या दवाओं के प्रति कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। नई तकनीक इन सभी बाधाओं को दूर करती है।
इस शोध का नेतृत्व हिब्रू यूनिवर्सिटी के रसायन विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर असाफ फ्राइडलर और यूट्रेक्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्टेफान जीडी रुडिगर ने किया है। इसे ‘नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज’ की प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित किया गया है। यह खोज भविष्य में डिमेंशिया और अल्जाइमर के सटीक निदान का नया रास्ता खोल सकती है।
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