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किस डर से मुस्लिम देश अफगान शरणार्थियों के लिए क्यों नहीं खोल रहे अपने दरवाजे ?

नई दिल्ली. अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद बड़ी संख्या में शरणार्थी निकले हैं. चरमपंथी तालिबान की हिंसा से डरे अफगान नागरिक दूसरे देशों में शरण तलाश रहे हैं, लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाला व्यवहार मुस्लिम देशों का रहा है, जिन्होंने अफगानी शरणार्थी के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए हैं. ईरान के अलावा किसी भी बड़े मुस्लिम देश ने अफगान शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे नहीं खोले हैं. शिया बहुल ईरान में पहले से 3.38 मिलियन (33 लाख 80 हजार) अफगानी शरणार्थी रह रहे हैं, अफगानिस्तान एक सुन्नी बहुल देश है. संयुक्त राष्ट्र की रिफ्यूजी एंजेंसी के डाटा के मुताबिक 33 लाख 80 हजार शरणार्थियों में 7 लाख 80 हजार मान्यता प्राप्त शरणार्थी हैं, जबकि 20 लाख शरणार्थियों का कोई रजिस्ट्रेशन नहीं हैं, वहीं 6 लाख के अफगानिस्तान का पासपोर्ट है.

अफगानिस्तान से लगे ईरान के तीन प्रांतों ने अफगानी शरणार्थियों के लिए इमरजेंसी टेंट लगाए हैं. ईरान एक मात्र बड़ा मुस्लिम देश है, जिसने ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन की आधिकारिक लाइन का पालन किया है. ओआईसी के अन्य देशों पाकिस्तान भी शामिल हैं, जिसके यहां बड़ी संख्या में अफगानी रिफ्यूजी रहते हैं, लेकिन इस्लामाबाद ने इस बार सीधे तौर पर किसी भी रिफ्यूजी को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है. अफगानिस्तान संकट पर ओआईसी ने रविवार को बैठक की, जिसमें अफगानिस्तान से सामान्य नागरिकों को सुरक्षित निकाले जाने पर चर्चा हुई. मीटिंग के बाद ओआईसी की ओर से जारी बयान में कहा गया है, ‘बैठक में नागरिकों की सुरक्षित निकासी को सुविधाजनक बनाने और इसके लिए सुरक्षित रास्ता प्रदान करने के लिए सहयोग की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है.

ओआईसी में चार महाद्वीपों के 57 मुस्लिम देश शामिल हैं और संस्था खुद को मुस्लिम दुनिया की सामूहिक आवाज कहती है. हालांकि बहुत सारे देशों ने इस बार सामूहिक आवाज पर ध्यान देना उचित नहीं समझा, जबकि इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है. 1996 और 2001 के बीच तालिबान के दमनकारी शासन के बाद मानवीय संकट ने अफगानिस्तान को आतंक का गढ़ बना दिया, जहां महिलाओं और नागरिकों के जीवन का कोई मोल नहीं था.

UNHCR के डाटा के मुताबिक पाकिस्तान में 14 लाख रजिस्टर्ड अफगानी शरणार्थी हैं, इनमें बिना रजिस्ट्रेशन वाले शरणार्थियों को जोड़ लें तो यह संख्या 30 लाख के करीब हो जाती है. लेकिन, पाकिस्तान ने इस बार अफगानी शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान और विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा कि इससे ज्यादा शरणार्थियों को नहीं रख सकते.

हालांकि इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि काबुल में तालिबान सत्ता का पुर्नआगमन पाकिस्तान की शह पर ही हुआ है. इस्लामाबाद ने तालिबान को हथियार, गोला बारूद, ट्रेनिंग और फंडिंग दी है. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई तालिबान के बेहद करीब है और आईएसआई चीफ हामिद फैज को अफगानिस्तान में तालिबान के शीर्ष नेताओं के साथ बैठक करते हुए देखा गया है. फैज ने मुल्ला अब्दुल गनी बारादर के साथ भी मीटिंग की है, जिसके अफगानिस्तान का अगला राष्ट्रपति होने के कयास लगाए जा रहे हैं.

पाकिस्तान की अफगानिस्तान में दिलचस्पी बहुत बड़ी है और 90 के दशक की तरह काबुल में तालिबान का शासन उसके हित में है. काबुल में तालिबान का सत्ता में लौटने का मतलब है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान भी सत्ता में लौट आया है, और इस्लामाबाद द्वारा शरणार्थी को स्वीकार ना किया जाना भी इस दिशा में एक कदम ही है. माना जा रहा है कि अफगानिस्तान की अगली सरकार बनाने में भी पाकिस्तान अहम भूमिका निभाएगा.

पाकिस्तान के साथ सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने भी 90 के दशक में तालिबान सरकार को मान्यता दी थी. ओआईसी का अगुवा सऊदी अरब अफगानी शरणार्थियों को पनाह देने के मामले में खामोश है. स्पष्ट कहा जाए तो सऊदी अरब ने तालिबान को काबुल की सत्ता में काबिज होने के लिए प्रेरित किया है. सऊदी ने अपने आधिकारिक बयान में कहा, “उम्मीद है कि तालिबान आंदोलन और अफगानिस्तान की सभी पार्टियां मिलकर काम करेंगी और सुरक्षा, स्थिरता, संपत्ति और जिंदगी सहजेने के लिए काम करेंगे. साथ ही अफगान नागरिकों के प्रति अपने सहयोग मजबूत करेंगे और बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के काम करेंगे.”

हालांकि ओआईसी ने अपने बयान में कि ‘जो अफगान नागरिक देश छोड़ना चाहते हैं, उन्हें ऐसा करने की अनुमति दी जानी चाहिए.’ वहीं संयुक्त अरब अमीरात ने भी सऊदी अरब की तरह ही स्टैंड लिया है और केवल 5 हजार अफगानियों को किसी तीसरे देश में जाने के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल ट्रैवल कॉरिडोर के रूप में करने की इजाजत दी है. और इसके लिए भी अमेरिका को गुजारिश करनी पड़ी. अफगानी शरणार्थी 10 दिनों तक यूएई में रह सकते हैं.

सऊदी और यूएई की तरह बहरीन ने भी अफगान शरणार्थी पर चुप्पी साध रखी है और उन्हें अपने देश का इस्तेमाल ट्रांजिट फैसिलिटी के रूप में करने की इजाजत दी है. वहीं तुर्की ने किसी भी अफगान शरणार्थी को स्वीकार करने से मना कर दिया है. तुर्की के राष्ट्रपति रेसप तैय्यप एर्दोआन ने तो अफगानी शरणार्थियों को तुर्की में आने से रोकने के लिए ईरान की सीमा पर दीवार बनाने की भी बात कही है.
बांग्लादेश ने भी अफगानी शरणार्थियों को पनाह देने से मना कर दिया है. ढाका ने इसके लिए रोहिंग्या शरणार्थियों की बड़ी संख्या की दलील दी है. अमेरिका ने बांग्लादेश से अफगानी शरणार्थियों को पनाह देने की बात कही थी. लेकिन बांग्लादेश ने मना कर दिया. UNHCR के मुताबिक 2020 तक बांग्लादेश में 8 लाख 66 हजार 457 रोहिंग्या शरणार्थी हैं.

इसी तरह का रवैया, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान ने भी अपनाया है. ताजिकिस्तान ने जुलाई में कहा था कि वह एक 1 लाख अफगानी रिफ्यूजियों को स्वीकार करेगा, लेकिन तालिबान की सत्ता के बाद अफगानिस्तान से लगी अपनी 1400 किलोमीटर लंबी सीमा पर ताजिकिस्तान ने अपने सैनिकों को भी अलर्ट कर दिया है. उज्बेकिस्तान ने तो पिछले कुछ महीनों से अफगानिस्तान नागरिकों को वीजा जारी करना भी बंद कर दिया है.

ओआईसी के कुछ देशों मसलन अल्बानिया और उगांडा ने अफगानिस्तान के शरणार्थियों को अस्थायी तौर पर पनाह देने का फैसाल किया है. दोनों देशों ने अमेरिका की गुजारिश पर ये फैसला किया है. अल्बानिया 300 नागरिकों को शरण देगा, वहीं उगांडा ने 2000 अफगानी शरणार्थियों की जिम्मेदारी लेने का फैसला किया है.

अगर इन देशों की जीडीपी को देखें, तो ओआईसी के ज्यादातर मुस्लिम देश आसानी से अफगानी नागरिकों को पनाह दे सकते थे. वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक तुर्की की जीडीपी 720 बिलियन डॉलर की है, सऊदी अरब की जीडीपी 700 बिलियन डॉलर की है, यूएई की 421 बिलियन डॉलर, बांग्लादेश की 324 बिलियन डॉलर और पाकिस्तान की 263 बिलियन डॉलर की जीडीपी है.