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ऊदा देवी पासी – दलित चेतना और नारी शक्ति की अग्रदूत

1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास में एक ऐसी चिंगारी थी, जिसने ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता की नींव को झकझोर कर रख दिया। इस संग्राम में जहाँ बहादुर शाह ज़फ़र, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और बेगम हज़रत महल जैसे नाम राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बने, वहीं कई ऐसे साहसी व्यक्तित्व भी थे, जिन्हें इतिहास ने हाशिए पर डाल दिया। ऊदा देवी पासी ऐसी ही एक वीरांगना थीं, जिनका बलिदान और शौर्य आज भी उपेक्षित स्मृतियों में सिसक रहा है।

अखिल कुमार यादव

अवध की वीरांगना, लखनऊ की शेरनी

ऊदा देवी का जन्म अवध के लखनऊ क्षेत्र में एक पासी परिवार में हुआ था। यह वह समय था जब समाज में जातिगत असमानताएँ अपनी चरम सीमा पर थीं। फिर भी, ऊदा देवी ने सामाजिक सीमाओं को लांघकर राष्ट्रप्रेम को प्राथमिकता दी। उनका विवाह नवाब वाजिद अली शाह की सेना के एक सिपाही मकरा पासी से हुआ था, और उनके पति की शहादत ने उन्हें प्रतिशोध और स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया।

उन्होंने बेगम हज़रत महल के नेतृत्व में एक महिला सैनिक दल का गठन किया – यह उस समय की सामाजिक व्यवस्था के लिए एक अद्भुत और साहसिक कदम था। 11 नवम्बर 1857 को जब लखनऊ के सिकंदर बाग़ में अंग्रेजी सेना और विद्रोहियों के बीच निर्णायक युद्ध छिड़ा, तब ऊदा देवी ने एक पीपल के वृक्ष पर चढ़कर छिपे हुए निशानेबाज़ की भूमिका निभाई और 32 ब्रिटिश सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। अंततः, अंग्रेजों द्वारा पेड़ की घेराबंदी कर गोलीबारी की गई, और वहीं पर वह वीरगति को प्राप्त हुईं।

जातीय और लैंगिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध प्रतीक

ऊदा देवी का संघर्ष केवल विदेशी सत्ता के खिलाफ नहीं था, बल्कि वह उस सामाजिक ढांचे के विरुद्ध भी था, जो महिलाओं और वंचित वर्गों को दोयम दर्जे का नागरिक मानता था। उन्होंने न केवल हथियार उठाए, बल्कि नेतृत्व किया – यह उस समय की समाज-व्यवस्था में नारी और दलित चेतना का एक ऐतिहासिक उदाहरण है। उनका योगदान यह स्पष्ट करता है कि भारत का स्वतंत्रता संग्राम किसी जाति विशेष की बपौती नहीं था, बल्कि यह राष्ट्र की आत्मा से उपजा सामूहिक विद्रोह था।

इतिहास में स्थान क्यों नहीं?

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऊदा देवी जैसी विभूतियों को मुख्यधारा के इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थीं। जिस इतिहास को लंबे समय तक औपनिवेशिक मानसिकता और जातिवादी दृष्टिकोण ने गढ़ा, उसमें दलित-आदिवासी नायकों की कहानियाँ अंधकार में दबी रहीं। आज जब देश सामाजिक समरसता, समावेशी विकास और ऐतिहासिक न्याय की बात करता है, तब ऊदा देवी जैसी वीरांगनाओं को पुनः स्मरण करना केवल श्रद्धांजलि नहीं, एक नैतिक जिम्मेदारी है।

समकालीन प्रासंगिकता

ऊदा देवी का जीवन हमें यह सिखाता है कि सामाजिक व्यवस्था कितनी भी कठोर हो, यदि भीतर राष्ट्रभक्ति की अग्नि धधक रही हो, तो कोई भी सीमा हमें रोक नहीं सकती। उनके जीवन से यह स्पष्ट होता है कि नारी शक्ति केवल सहनशीलता नहीं, अपितु प्रतिरोध की प्रेरणा भी है। दलित समाज के लिए वह आत्मसम्मान और संघर्षशीलता की जीती-जागती प्रतीक हैं। ऊदा देवी पासी को याद करना मात्र अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा तय करने वाला एक कदम है। जब तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सभी नायकों को न्यायसंगत स्थान नहीं मिलेगा, तब तक हमारी राष्ट्रीय चेतना अधूरी ही मानी जाएगी।

इस जयंती पर यह अपेक्षित है कि न केवल सरकारें, बल्कि शिक्षण संस्थान, इतिहासकार, और समाज-सुधारक – सभी मिलकर ऊदा देवी जैसे चरित्रों को उनके उचित गौरव का स्थान दें।